
किसी नगर में देवदत्त नाम का एक ब्राम्हण निवास करता था। वह खेती-किसानी करके अपना जीवन गुजर-बसर करता था, चूँकि उसकी खेती अच्छी नहीं थी इसलिए उसका अधिकतर समय खली ही बीतता था। एक बार ग्रश्म ऋतु में अपने खेत के किनारे एक वृक्ष के नीचे सोये हुआ था। उसे आभास हुआ कि वृक्ष के पास में एक बिल है जिसमे से सर्प निकल कर फन फैलाये हुए बैठा है। जैसे ही उसने आँख खोल कर देखा तो सच में एक सर्प फन फैलाये अपने बिल के पास बैठा हुआ था। उस सर्प को देख कर ब्राम्हण के मन में विचार आता है, हो न हो यह मेरे खेत का देवता है जो मेरे खेत की रक्षा करने के लिए यहाँ निवास करता है।
आज तक मैंने इसकी पूजा नहीं की लेकिन आज दर्शन होने के बाद मैं जरूर इसकी पूजा करूँगा। मन में यह विचार आते ही वह जल्दी से उठ कर गया और दूध लेकर आया। ब्राम्हण ने दूध को एक मिटटी के बर्तन में रखा और उसे बिल के समीप रख कर बोला – हे सर्प देवता आप मेरे इस खेत की रक्षा करने वाले हो, मैंने आज तक कभी भी आपकी पूजा नहीं किया। आज तक मुझे आप यहाँ निवास करते हैं इसकी जानकारी नहीं थी, इसलिए मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गयी कि आपकी पूजा नहीं कर पाया।आप मेरे अनजाने में हुए इस अपराध को क्षमा कीजिये और मुझे धन-धन्य से समृद्ध कर दीजिये। इस तरह उस ब्राम्हण ने दूध से भरा मिटटी का बर्तन वही रख कर अपने घर लौट आया।
दूसरे दिन प्रातः कल नित्यकर्म के पश्चात वह अपने खेत में आया और उसी स्थान में जाकर देखा कि जिस बर्तन में उसने दूध रखा था, उसमे एक स्वर्ण मुद्रा रखी हुई थी। ब्राम्हण ने उस स्वर्ण मुद्रा को अपने पास रख लिया और फिर से उसी प्रकार उस सर्प की पूजा करके उस बर्तन में दूध रखकर अपने घर चला गया। दूसरे दिन प्रातः कल जब वो खेत पर फिर उस जगह पर आया तो फिर उस दिन भी उसने देखा वहां एक स्वर्ण मुद्रा रखी हुई थी। इस तरह वह प्रतिदिन उस सर्प की पूजा करता और बर्तन में दूध रख क्र चला जाता था और फिर दूसरे दिन नित्यकर्म करके उस स्थान पर आता और उसे फिर एक स्वर्ण मुद्रा मिल जाता था।
दिन यूँ ही बीतता गया और एक दिन उसे कुछ कार्य से दूसरे गांव जाना पड़ा। तब उसने अपने पुत्र को उसी तरह पूजा करके दूध रखने का निर्देश दिया जिस तरह से वह स्वयं करता है। अपने पिता के निर्देश पर उसका पुत्र प्रातः काल जाकर सर्प की पूजा करता और दूध को उस बर्तन में रख कर आता जाता और दूसरे दिन वहां उसे एक स्वर्ण मुद्रा मिलता। एक दिन उसके पुत्र के मन में विचार आया कि इस बिल के अंदर निश्चित ही सवर्म मुद्राओं का बहुत बड़ा भंडार है। उसके मन में यह विचार आते ही उसने यह निश्चय किया कि इस बिल को खोदकर सारी स्वर्ण मुद्रा ले लिया जाये परन्तु उसे उस सर्प का भय भी था। एक दिन जब ब्राम्हण पुत्र वहां आया और जैसे ही सर्प अपने बिल से बाहर दूध पिने के लिए निकला उसने सर्प के सर पर लाठियों से प्रहार किया।
उसके प्रहार से सर्प तो मारा नहीं लेकिन ब्राह्मण पुत्र के इस कार्य से सर्प क्रोध में आकर उस ब्राम्हण को अपने विश भरे विषैले दांतों से काट दिया और उस ब्राम्हण पुत्र की तत्काल मृत्यु हो गई। इस प्रकार उस ब्राम्हण पुत्र को अकाल मृत्यु प्राप्त हुई और स्वर्ण मुद्रा भी हाथ से चला गया।
शिक्षा:-
दोस्तों इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जीवन में कभी भी ललचा नहीं करना चाहिए। संतोष ही सबसे बड़ी संपत्ति है,जिस प्रकार लालच करने से उस ब्राम्हण पुत्र ने अपना जीवन नष्ट कर लिया और स्वर मुद्रा भी हाथ से चला गया। इसलिए हमें कभी भी लालच नहीं करनी चाहिए। वो कहावत तो आप सबको याद होगा – “लालच बुरी बला है।”
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