“लौह पुरुष” सरदार वल्लभभाई पटेल के प्रेरणाप्रद वचन | Motivational Quote In Hindi

संक्षिप्त जीवन परिचय

वल्लभभाई झावेरभाई पटेल (31 अक्टूबर 1875–15 दिसंबर 1950), जो सरदार पटेल के नाम से लोकप्रिय थे, एक भारतीय राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने भारत के पहले उप-प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया। वे एक भारतीय अधिवक्ता और राजनेता थे, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता और भारतीय गणराज्य के संस्थापक पिता थे जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए देश के संघर्ष में अग्रणी भूमिका निभाई और एक एकीकृत, स्वतंत्र राष्ट्र में अपने एकीकरण का मार्गदर्शन किया। भारत और अन्य जगहों पर, उन्हें अक्सर हिंदी, उर्दू और फ़ारसी में सरदार कहा जाता था, जिसका अर्थ है “प्रमुख”। उन्होंने भारत के राजनीतिक एकीकरण और 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान गृह मंत्री के रूप में कार्य किया।भारत के एकीकरण में उनके महान योगदान के लिये उन्हे भारत का लौह पुरूष के रूप में जाना जाता है। सन 1950 में उनका देहान्त हो गया।

दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा

सरदार वल्लभभाई पटेल हमेशा भारत के एकता के लिए काम किये और उसी का समर्थन जब तक रहे करते रहे, इसलिए उन्हें “लौह पुरुष” के नाम से भी जाना जाता है| भारत सरकार ने सरदार पटेल के सम्मान में दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा “स्टैच्यू ऑफ यूनिटी” का निर्माण किया है। 182 मीटर ऊँची यह प्रतिमा देश को एक सूत्र में पिरोने वाले इस महान नेता के लिए एक उचित सम्मान है।

गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 31 अक्टूबर 2013 को सरदार पटेल के जन्मदिवस के मौके पर इस विशालकाय मूर्ति के निर्माण का शिलान्यास किया था। यह स्मारक सरदार सरोवर बांध से 3.2 किमी की दूरी पर साधू बेट नामक स्थान पर है जो कि नर्मदा नदी पर एक टापू है। यह स्थान भारतीय राज्य गुजरात के भरुच के निकट नर्मदा जिले में स्थित है।सरदार वल्लभ भाई पटेल जी के जीवन में प्रेरणा देने वाली विचार जो आपके जीवन के लिए भी उपयोगी साबित होंगे।

सरदार वल्लभभाई पटेल के अनमोल विचार

  • सत्ताधीशों की सत्ता उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाती है, पर महान देशभक्तों की सत्ता मरने के बाद काम करती है, अतः देशभक्ति अर्थात् देश-सेवा में जो मिठास है, वह और किसी चीज में नहीं।
  • सैनिक लड़ने के लिए तो तैयार हो, किन्तु सेनापति द्वारा बताए गये शस्त्रास्त्र न रखे, तो वह युद्ध नहीं जीत सकता, क्योंकि उसमें अनुशासन नहीं है।
  • जिसने भगवान को पहचान लिया, उसके लिए तो संसार में कोई अस्पृश्य नहीं है, उसके मन में ऊँच-नीच का भेद कहाँ ! अस्पृश्य तो वह प्राणी है जिसके प्राण निकल गए हों अर्थात वह शव बन गया हो. अस्पृश्यता एक वहम है. जब कुत्ते को छूकर, बिल्ली को छूकर नहाना नहीं पड़ता तो अपने समान मनुष्य को छूकर हम अपवित्र कैसे हुए।

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  • जो तलवार चलाना जानते हुए भी तलवार को म्यान में रखता है, उसी की अहिंसा सच्ची अहिंसा कही जाएगी. कायरों की अहिंसा का मूल्य ही क्या. और जब तक अहिंसा को स्वीकार नहीं जाता, तब तक शांति कहाँ!
  • आत्मा को गोली या लाठी नहीं मार सकती. दिल के भीतर की असली चीज इस आत्मा को कोई हथियार नहीं छू सकता।
  • कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति सदैव आशावान रहता है।
  • पड़ोसी का महल देखकर अपनी झोपडी तोड़ डालनेवाला महल तो बना नहीं सकता, अपनी झोपडी भी खो बैठता है।

लौहपुरुष नाम क्यों पड़ा?

जब भारत आज़ाद हुआ तो सरदार वल्लभभाई पटेल गृह मंत्री बनाया गया। उन्हें भारतीय रोयसातों का आज़ाद भारत में पूर्ण विलय की अतिमहत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया। सरदार पटेल जी ने अपने कार्यों का दृढ़ संकल्प और कर्मठ होकर निर्वहन करते हुए भारत के करीब छः सौ छोटे-बड़े रियासतों को भारत में विलय कर दिए। उनका देसी रियासतों का आज़ाद भारत में निर्विवाद विलय देश की पहली उपलब्धि थी जिसमे उनका विशेष योगदान था। जब राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने सरदार पटेल के नीतिगत दृढ़तापूर्वक कार्य संकल्प और योगदान को देखे तो उन्होंने वल्लभ भाई पटेल को “लौह पुरुष” की उपाधि दी। आज़ाद भारत को एक विशाल और एक राष्ट्र बनाने का श्रेय उन्हें ही जाता है ।
  • ईश्वर का नाम ही (रामवाण) दवा है. दूसरी सब दवाएं बेकार हैं. वह जब तक हमें एस संसार में रखे, तब तक हम अपना कर्तव्य करते रहें. जानेवाले का शोक न करें, क्योंकि जीवन की डोर तो उसी के हाथ में है. फिर चिंता की क्या बात. याद रहे कि सबसे दुखी मनुष्य में भगवान का वास होता है. वह महलों में नहीं रहता।
  • पांत के ऊँच-नीच के भेदभाव को भुलाकर सब एक हो जाइए।कठिनाई दूर करने का प्रयत्न ही न हो तो कठिनाई कैसे मिटे. इसे देखते ही हाथ-पैर बाँधकर बैठ जाना और उसे दूर करने का कोई भी प्रयास न करना निरी कायरता है।
  • कर्तव्यनिष्ठ पुरूष कभी निराश नहीं होता. अतः जब तक जीवित रहें और कर्तव्य करते रहें तो इसमें पूरा आनन्द मिलेगा।
  • कल किये जानेवाले कर्म का विचार करते-करते आज का कर्म भी बिगड़ जाएगा. और आज के कर्म के बिना कल का कर्म भी नहीं होगा, अतः आज का कर्म कर लिया जाये तो कल का कर्म स्वत: हो जाएगा।
  • जैसे प्रसव-वेदना के बाद राहत मिलती है, उसी प्रकार ज्यादती के बाद ही विजय होती है. समाज की बुराइयों को दूर करने के लिए इससे अधिक शक्तिशाली कोई हथियार नहीं।
  • कायरता का बोझा दूसरे पड़ोसियों पर रहता है. अतः हमें मजबूत बनना चाहिए ताकि पड़ोसियों का काम सरल हो जाए।
  • मनुष्य को ठंडा रहना चाहिए, क्रोध नहीं करना चाहिए. लोहा भले ही गर्म हो जाए, हथौड़े को तो ठंडा ही रहना चाहिए अन्यथा वह स्वयं अपना हत्था जला डालेगा. कोई भी राज्य प्रजा पर कितना ही गर्म क्यों न हो जाये, अंत में तो उसे ठंडा होना ही पड़ेगा।
  • चरित्र के विकास से बुद्धि का विकास तो हो ही जाएगा. लोगों पर छाप तो हमारे चरित्र की ही पडती है।
  • जितना दुःख भाग्य में लिखा है, उसे भोगना ही पड़ेगा-फिर चिंता क्यों?
  • त्याग के मूल्य का तभी पता चलता है, जब अपनी कोई मूल्यवान वस्तु छोडनी पडती है. जिसने कभी त्याग नहीं किया, वह इसका मूल्य क्या जाने।
  • भगवान किसी को दूसरे के दोषों का धनद नहीं देता, हर व्यक्ति अपने ही दोषों से दुखी होता है।
  • दुःख उठाने के कारण प्राय: हममें कटुता आ जाती है, दृष्टी संकुचित हो जाती है और हम स्वार्थी तथा दूसरों की कमियों के प्रति असहिष्णु बन जाते हैं. शारीरिक दुःख से मानसिक दुःख अधिक बुरा होता है।
  • अधिकार मनुष्य को अँधा बना देता है. इसे हजम करने के लिए जब तक पूरा मूल्य न चुकाया जाये, तब तक मिले हुए अधिकारों को भी हम गंवा बैठेंगे।
  • जो व्यक्ति अपना दोष जनता है उसे स्वीकार करता है, वही ऊँचा उठता है. हमारा प्रयत्न होना चाहिए कि हम अपने दोषों को त्याग दें
  • अपने धर्म का पालन करते हुए जैसी भी स्थिति आ पड़े, उसी में सुख मानना चाहिए और ईश्वर में विश्वास रखकर सभी कर्तव्यों का पालन करते हुए आनन्दपूर्वक दिन बिताने चाहिए।
  • जीतने के बाद नम्रता और निरभिमानता आनी चाहिए, और वह यदि न आए तो वह घमंड कहलाएगा।
  • सेवा करनेवाले मनुष्य को विन्रमता सीखनी चाहिए, वर्दी पहन कर अभिमान नहीं, विनम्रता आनी चाहिए।
  • सारी उन्नति की कुंजी ही स्त्री की उन्नति में है. स्त्री यह समझ ले तो स्वयं को अबला न कहे. वह तो शक्ति-रूप है. माता के बिना कौन पुरूष पृथ्वी पर पैदा हुआ है।
  • किसी तन्त्र या संस्थान की पुनपुर्न: निंदा की जाए तो वह ढीठ बन जाता है और फिर सुधरने की बजाय निंदक की ही निंदा करने लगता है।
  • प्राण लेने का अधिकार तो ईश्वर को है. सरकार की तोप या बंदूकें हमारा कुछ नहीं कर सकतीं. हमारी निर्भयता ही हमारा कवच है।
  • नेतापन तो सेवा में है, पर जो सीधा बन जाता है, वह किसी-न-किसी दिन लुढक अवश्य जाता है।
  • हर जाति या राष्ट्र खाली तलवार से वीर नहीं बनता. तलवार तो रक्षा-हेतु आवश्यक है, पर राष्ट्र की प्रगति को तो उसकी नैतिकता से ही मापा जा सकता है।
  • चूँकि पाप का भार बढ़ गया है, अतः संसार विनाश के मार्ग पर अग्रसर है।
  • कठोर-से-कठोर हृदय को भी प्रेम से वश में किया जा सकता है. प्रेम तो प्रेम है. माता को भी अपना काना-कुबड़ा बच्चा सुंदर लगता है और वह उससे असीम प्रेम करती है।
  • मानव ईश्वरप्रदत्त बुद्धि का उपयोग नहीं करता, आँखें होते हुए भी नहीं देखता, इसीलिए वह दुखी रहता है।
  • हिंसा के बल पर ही जो सारी तैयारी करते हैं. उनके दिल में भी के सिवाय और कुछ नहीं होता. भी तो ईश्वर से होना चाहिए,किसी मनुष्य या सत्ता से नहीं और भी को मिटाकर हम दूसरों को भयभीत करें तो इस जैसा कोई पाप नहीं।भारत की एक बड़ी विशेषता है, वह यह कि चाहे कितने ही उतर-चढ़ाव आएँ, किन्तु पुण्यशाली आत्माएँ यहाँ जन्म लेती ही रहती हैं।
  • प्राणियों के इस शरीर की रक्षा का दायित्व बहुत-कुछ हमारे मन पर भी निर्भर करता है।
  • प्रत्येक मनुष्य में प्रकृति ने चेतना का अंश रख दिया है जिसका विकास करके मनुष्य उन्नति कर सकता है।
  • मृत्यु ईश्वर-निर्मित है, कोई किसी को प्राण न दे सकता है, न ले सकता है. सरकार की तोपें और बंदूकें हमारा कुछ भी नहीं कर सकतीं।
  • विश्वास का न होना ही का कारण है. प्रज्ञा का विश्वास राज्य की निर्भयता की निशानी है।
  • शक्ति के बिना बोलने से लाभ नहीं. गोला-बारूद के बिना बत्ती लगाने से धडाका नहीं होता।
  • संस्कृति समझ-बूझकर शांति पर रची गयी है. मरना होगा तो वे अपने पापों से मरेंगे. जो काम प्रेम, शांति से होता है, वह वैर-भाव से नहीं होता।
  • शारीरिक और मानसिक शिक्षा साथ –साथ दी जाये, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए. शिक्षा इसी हो जो छात्र के मन का, शरीर का, और आत्मा का विकास करे।
  • शक्ति के बिना श्रद्धा व्यर्थ है. किसी भी महान कार्य को पूरा करने में श्रद्धा और शक्ति दोनों की आवश्यकता है।
  • वह इन्सान कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता जिसने कभी किसी संत को दुःख पहुंचाया हो।
  • देश में अनेक धर्म, अनेक भाषाएँ हैं, तो भी इसकी संस्कृति एक है।
  • सत्य के मार्ग पर चलने हेतु बुरे का त्याग अवश्यक है, चरित्र का सुधार आवश्यक है।
  • जल्दी करने से आम नहीं पकता. आम की कच्ची कैरी तोड़ेंगे तो दांत खट्टे होंगे. फल को पकने दें, पकेगा तो स्वयं गिरेगा और रसीला होगा. इसी भांति समझौते का समय आएगा, तब सच्चा लाभ मिलेगा।
  • जो मनुष्य सम्मान प्राप्त करने योग्य होता है, वह हर जगह सम्मान प्राप्त कर लेता है, पर अपने जन्म-स्थान पर उसके लिए सम्मान प्राप्त करना कठिन ही है।
  • सुख और दुःख मन के कारण ही पैदा होते हैं और वे मात्र कागज के गोले हैं।
  • सेवा-धर्म बहुत कठिन है. यह तो काँटों की सेज पर सोने के समान ही है।
  • किसी राष्ट्र के अंतर में स्वतन्त्रता की अग्नि जल जाने के बाद वह दमन से नहीं बुझाई जा सकती. स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भी यदि परतन्त्रता की दुर्गन्ध आती रहे तो स्वतन्त्रता की सुगंध नहीं फैल सकती।
  • सच्चे त्याग और आत्मशुद्धि के बिना स्वराज नहीं आएगा. आलसी, ऐश-आराम में लिप्त के लिए स्वराज कहाँ! आत्मबल के आधार पर खड़े रहने को ही स्वराज कहते हैं।
  • अर्थ के हेतु राजद्रोह करनेवालों से नरककुंड भरा है।
  • हम कभी हिंसा न करें, किसी को कष्ट न दें और इसी उद्देश्य से हिंसा के विरूद्ध गांधीजी ने अहिंसा का हथियार आजमा कर संसार को चकित कर दिया.

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